कतआत - इकतीस से चालीस

31
तल्खियाँ ज़िंदगी का रूख मोड़ देती हैं।
दुश्मनी दुश्मनों को आपस में जोड़ देती हैं।
भरोसा किस पर करें किस पर नहीं,
वक्त आने पर परछाई भी साथ छोड़ देती है।
*
32
अपनों को कभी रूठने न देना।
दीवार आंगन में उठने न देना।
ज़िन्दगी को जीना कुछ इस तरह से
दामन इन्सानियत का छूटने न देना।
*

33
हर नये शख्स से पहचान किया करो ।
ज़ख्म औरों के भी तुम सिया करो ।
घुट-घुट के जीना जीना नहीं होता है ।
ज़िन्दगी को जिन्दा दिली से जिया करो ।
*
34
हाल दिल का कहो गम घट जायेगा ।
किसी को संग ले लो सफर कट जायेगा ।
गर जिद अपने हक की न छोड़ोगे ते,
घर-आंगन हिस्सो में बंट जावेगा ।
*
35
आंखों से गुलशन का नज़ारा होता है ।
कश्ती को पतवार का सहारा होता है ।
खुदगर्जी से भरे इस जहां में ऐ दोस्त,
सिर्फ दोस्तों का ही एक सहारा होता है ।
*

36
दिल मेरा मेरे सीने के पार नहीं ।
मुझे अब किसी का भी इंतजार नहीं ।
मेरी सांसों की तरन्नुम में है तेरा ही नाम,
कैसे कह दूं कि मुझे तुमसे प्यार नहीं ।
*
37
दूरियों का कभी ग़म न करना ।
जज़्बा अपनेपन का कम न करना ।
दूर करने की कोशिशें लोग करते रहेंगे,
रिश्तों पर अपने पर वहम न करना ।
*
38
अपना जब कोई खास होता है ।
खुद से ज्यादा उस पर विश्वास होता है ।
दूर कितना भी रहे वो तो क्या,
उसके करीब होने का मगर एहसास होता है ।
*
39
ज़रा मुस्करा कर हौसले की बात करो ।
शमा जला कर रौशन हर रात करो ।
दर दिल में छुपा इक इंसान होता है,
ज़रा खुल कर लोगों से मुलाकात करो ।
*
40
वक्त अक्सर ही कमाल करता है ।
हर शख़्स से वो सवाल करता है ।
*

कोई टिप्पणी नहीं: