कतआत - इकसठ से सत्तर

61
ग़रीब और अमीर के बीच दीवार देखी,
बेरोज़गारी की होती लम्बी कतार देखी।
बड़े ज़िन्दा दिली से जीता है यहां ग़रीब
एक कमरे में कई-कई बहार देखी।
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62
वो नन्हीं कली गोद में मचलती है।
बड़ी नाज़ों-अंदाज़ मे जो पलती है।
भविष्य सोचकर दिल कांप उठता है।
इस ज़माने में तो सिर्फ बहुयें ही जलती है।
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63
मैं वो नहीं जो लोगों को दिखता हूं।
चाहे जो ख़रीद ले बेमोल बिकता हूं।
इस ज़माने से नफ़रत शायद मिटा सकूं,
गीत प्यार के इसी उम्मीद से लिखता हूं।
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64
रफ्ता-रफ्ता जलती शम्आ ये सिखाती है,
कि रौशनी देने के लिये जलना ज़रूरी है।
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65
दिल ढल रहा शाम आ रही ।
चादर अंधेरे की ज़मीं पे छा रही ।
सिर्फ खुशियां ही नहीं मिलती यहां ।
राज़ ये कुदरत हमको समझा रही ।
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66
चांद कितना भी चाहे चांदनी से जुदा नहीं हो सकता ।
आदमी कितना भी बढ़ जाये वो खुदा नहीं हो सकता ।
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67
पतझड़ के शजर सब्ज नहीं होते ।
ग़म दिन के अक्सर जज़्ब नहीं होते ।
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68
क्यों बनाते हो समन्दर की रेत पर घर ।
साहिल के घरौंदों की उम्र नहीं होती है ।
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69
आईना तोड़ने से सुकून न मिलेगा तुम्हें ।
हर टुकड़े में मेरा ही अक्स नज़र आयेगा ।
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70
तमाम उम्र, ज़िन्दगी को मनाने में गुज़र गई ।
मौत आई और पल भर में अपना बना गई ।
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