कतआत - ग्यारह से बीस

11
हर गैर को हम अपना बना लेते हैं।
आब की बूंदों को भी सुधा बना देते है।
तुम क्या हमें तहजीब सिखाओगे जहां वालों
हम तो पत्थर को भी खुदा बना देते हैं।
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12
आसमां ज़मीं पर कभी झुकता नहीं।
वक्त किसी के लिये रूकता नहीं।
उम्र भर भी अश्क बहें तो क्या
पानी आंखों का कभी सूखता नहीं।
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13
बिन पिये ही कभी ये नज़रें बहक जाती हैं।
फूलों से चमन की गलियां महक जाती है।
इस कदर बेतहाशा ठहाके न मारा करें
अधिक हंसी से कभी-कभी आंखे छलक जाती हैं।
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14
हम से जहां में बहारें हैं।
ज़मीं के हम ही सितारें हैं।
आसमां को भी मुट्ठी में रख्खें
ऐसे बुलंद हमारे इरादे हैं।
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15
कांटे फूलों को चुभते नहीं,
उसकी हिफाजत करते हैं।
मेहमान हमारा खुदा होता है,
हम तो उसकी इबादत करते हैं।
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16
जिस्म की चोटों का कोई डर नहीं,
ये तो वक्त के साथ भर ही जाते हैं।
चोट शब्दों के न देना कभी किसी को,
ये तो रूह तक को घायल कर जाते हैं।
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17
मुसाफ़िर बन के आये हैं, चले जायेंगे सब
ये यहां एक सराय से ज्यादा कुछ भी नहीं।
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18
पथरीली राहों पर चलने की आदत डाल लो,
हर कदम, पैरों के नीचे फूल नहीं होंगें।
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19
इन्सां का आज़ाद होना एक भुलावा है,
जिस्म में पड़ी सांसों की ज़ंजीर तो देखो।
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20
जहां में आये हैं तो खुदा से डरना जरूरी है।
पैर ज़मीं पर और ज़मीर साथ रखना जरूरी है।
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