मोतियों की तरह जगमगाती ग़ज़लें - लक्ष्मीनारायण साधक

कारवां लफ़्जों का ग़ज़ल संग्रह पर विचार करने से पूर्व ग़ज़ल का संक्षिप्त इतिहास, स्वरुप एवं संरचना तकनीक पर गौर करना जरुरी है । अतः एक विहंगम दृष्टि से इस ओर दृष्टिपात करते हैं ।

अरब में बादशाहों की प्रशंसा में कसीदे पढ़ने की परंपरा थी । इसके पहले अंश को तशबीब कहते थे । जिसका अर्थ होता है शबाब की बातें करना । तशबीब के इस अंश में दिल फरेबी एवं सौन्दर्यमय कथन हुआ करते थे । इसी कसीदे के अंश से ग़ज़ल का जन्म हुआ ।

वस्तुतः ग़ज़ल का अर्थ कातना या बुनना है । अरबी भाषा में यह धातु रुप है और इसी की क्रिया रुपी संज्ञा तगज्जुल है । जिसका अर्थ है औरतों से बातें करना । कालांतर में ग़ज़ल और तगज्जुल का अर्थ बदल गया । अरबी से फारसी और उर्दू में रसवृष्टि करती हुई यह विधा अब हिन्दी में भी छाई हुई है । आजकल ग़ज़ल अपने सीमित दायरे को त्याग चुकी है । हिन्दी ने उसे विस्तृत केनवास देकर और भी लोकप्रिय बना दिया है ।

ग़ज़ल की बनावट दो प्रकार की होती है -1 खारिजी (बाहरी स्वरुप) 2. दाखिली (ग़ज़ल का आंतरिक स्वरुप) इसके बाहरी स्वरुप से तात्पर्य- छंद, मीटर, काफिया, रदीफ, बंदिश, भाषा और शैली से है । ग़ज़ल के आंतरिक स्वरुप से तात्पर्य कथ्य से है । ग़ज़ल का बाहरी स्वरुप आज भी पूर्व जैसा ही है किन्तु इसके आंतरिक स्वरुप में उल्लेखनीय परिवर्तन आया है । अब तो ग़ज़ल के तेवर ही कुछ और है । श्रृंगारिक और वासनायुक्त ग़ज़लिया शायरी का स्थान अब प्रगतिशील, इन्कलाबी, ग़ज़लों ने ले लिया है इससे यह मनोहरी विधा और भी प्रभावपूर्ण बन गई है । इसकी संरचना प्रक्रिया गणितीय है । इसके सैद्धांतिक पक्षों को बिना जाने ग़ज़ल बुनने का अर्थ होगा महज तुकबंदी तक सीमित हो जाना ।

ग़ज़ल में सपाट बयानी और व्याख्या से परे वक्रोक्ति और संक्षिप्तता का प्रयोग होता है । रहस्यपूर्ण ढंग से संकेत, रुपक, प्रतीक, अलंकार, उपना आदि का प्रयोग करते हुए ग़ज़ल स्थायी प्रभाव बिखेरती है और पाठक के मनः मस्तिष्क पर छा जाती है । नाजुक खयाली, चमत्कार, गम्भीरता, स्वतंत्रता, नवीनता इसके अन्य जरुरी गुण है ।

ग़ज़लें विविध बहरों में लिखी जाती है । किसी मीटर विशेष के अंदर वर्णों के उतार चढ़ाव की जो लयात्मकता होती है वहीं ग़ज़ल की बहर कहलाती है । ग़ज़ल का बहर में न होना इस बात का संकेत है कि अमुक ग़ज़ल ऊर्दू की मान्य बहरों में ही नहीं है लेकिन में इसे दकियानूसी सोच मानता हूं । हर भाषा अपनी बहरें तलाशती है । हिन्दी ग़ज़लों ने भी अपनी बहरें तलाशी हैं । ग़ज़ल के विकास के साथ-साथ अब यह विधा गुरुडम से मुक्त हो चुकी है फिर भी इसका अपना अनुशासन बदस्तुर कायम है । बिना नियम व कायदे के ग़ज़ल, ग़ज़ल नहीं हो सकती साथ ही यह भी सही है कि ग़ज़ल को उस्तादों के ज्ञान का पिछलग्गू बनाकर छोड़ देना आज की वैज्ञानिक बुद्दि कैसे स्वीकार कर सकती है ।

एक ग़ज़ल में कई शेर होते हैं । प्रत्येक पंक्ति को मिसरा कहते हैं । शेर में दो मिसरा होते हैं, अशआर शेर का बहुवचन है । ग़ज़ल में अशआर की संख्या प्रायः विषम होती है जैसे पांच, सात आदि । ग़ज़ल का पहला शेर मतला और अंतिम मक्ता कहलाता है । समान तुकांत शब्द काफिये कहलाते हैं । मतले के दोनों मिसरा में काफिये होते हैं । अन्य अशआर की पहिली पंक्ती को छोड़ दूसरी पंक्ति में काफिये लाये जाते हैं । रदीफ शब्द समूह है जो काफिये के बाद बिना किसी परिर्वतन के दोहराया जाता है । किसी-किसी ग़ज़ल में बात काफिये पर आकर ही समाप्त हो जाती है । मक्ते में शायर अपने उपनाम का उपयोग करता है । आजकल हिन्दी ग़ज़लों यह चलन नहीं है ।

ग़ज़लकार भाई जयन्त थोरात का ग़ज़ल संग्रह कारवां लफ़्जों का अध्ययनार्थ एवं विचारनार्थ मेरे टेबल पर है । ग़ज़ल के सह्रदय पाठक के रुप में ग़ज़ल विधा पर विचार निमग्र हूं । भाई जयन्त की ग़ज़ल पढ़ते-पढ़ते ग़ज़ल तकनीकी के पृष्ठ अपने आप खुलते जा रहे हैं । इस ग़ज़ल संग्रह में ग़ज़ल संरचना की बाह्य तकनीकी प्रक्रिया का निर्वाह बखूबी करके उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि शायर ग़ज़ल कहने का अभ्यास नया नहीं है । काफिया, रदीफ, बहर वजने-बहर की उन्हें जानकारी है । फिर भी कुछ ऐसी परिस्थियां आ जाती है जहां पूरी कोशिश के बावजूद न्यूनता रह जाती है, अपवाद कहां नहीं होते सो भाई जयन्त जी को मैं एक सचेष्ठ ग़ज़लकार मानते हुए उनकी ग़ज़लकार मानते हुए उनकी ग़ज़लों के सौंदर्य बोध में स्वयं को खोया हुआ महसुस करता हूं ।

जैसा कि पूर्व में लिख चुका हूं कि ग़ज़ल के बाहरी स्वरुप के साथ उसका आंतरिक स्वरुप अधिक महत्वपूर्ण होता है । ग़ज़ल के आंतरिक स्वरुप में उसकी आत्मा या आत्मचेतना निहित होती है । इस चेतना की प्रतीकपूर्ण कथ्यों में रसपरिपूर्ण अनुभूति के साथ होती है । ग़ज़ल के कथ्य ही बताते हैं कि वह कितनी सजीव एवं संप्रेषणीय है । ग़ज़ल के कथ्यों में भाव की गहराई सागर की गहराई से भी अधिक होती है । बकौल शायर देशराज-यथा-
मोहब्बत एक बहरे-बेकरां है,
मोहब्बत का कोई साहिल नहीं है ।

जैसे मोहब्बत का कोई साहिल नहीं है वैसे ही मोहब्बत की प्रतीक स्वरुपा, ग़ज़ल का भी साहिल नहीं होता जहां प्राचीन और मध्य युग में ग़ज़ल के कथ्य श्रृंगारिक एवं वासनामय हुआ करते थे वही अब वे इन्कलाबी भावनाओं एवं प्रगतिशील विचारों को चित्रित करते हैं ।

ग़ज़ल के आंतरिक स्वरुप की कसौटी पर भाई जयन्त का ग़ज़ल संग्रह कम सराहनीय नहीं है । उनकी ग़ज़लों के अशआर प्रभावी एवं सौन्दर्य-बोध से भरे हुए हैं । शायर संवेदना से सीधा जुड़ा है । वह जिन्दगी के हर पहलू की परख करता है और उसे बेहत्तर ढंग से जीने की अभिलाषा रखता है । इसलिए शायर ने कहा है-
सुख और दुख इसकी देहलीज पर है,
दोनों को ही प्यार से अपनाती है जिन्दगी ।

प्रेम का स्पर्श जिन्दगी को सहिष्णु बना देता है और इंसान प्रेम से युक्त होते ही खंजर की धार पर चलकर भी संकटों को पराभूत करने की क्षमता विकसित कर लेता है । जीवन दर्शन को भली प्रकार समझाना आसान नहीं है । यह व्यक्ति पर निर्भर है कि वह जीवन की क्या मानकर जीता है । शायर की यह व्यंजन । काबिले गौर है-
अपनी अपनी सोच के लिये इसो छोड़ो तुम,
किसी के लिये पत्थर, तो किसी के लिये नगीना होगा ।
मिला है अगर जीवन, तो इसे जीना होगा,
अमृत समझो या जहर, अब तो पीना होगा।

आजकल रिश्तों के ताने-बाने बिखरते जा रहे हैं । अपरिचित लोग तो प्रेम पूर्वक मिलते हैं, किन्तु रिश्तेदारी में तो यह अपनापन और प्रेम अब नजर नहीं आता । इसी को शायर तरह शब्दायित करता है ।
रिश्ते सभी अब तो बेगाने हो गये,
बिना पढ़े ही लोग सयाने हो गये ।
वैसे तो रोज आपस में मिलते हैं,
अपनेपन से मिले तो जमाने हो गये ।

वय-संधि से गुजरती एक नायिका का सौन्दर्य-बोध शायर के इन अशआरों में बोल उठता है-
सीरत में बचपन की सादगी है,
सूरत पे शबनम की ताजगी है ।
उड़ आते हैं चेहरे पर अक्सर,
जुल्फ़ों की ये आवारगी है ।

प्रतीक्षारत आंखे कभी थका महसूस नहीं करती । प्रिय चाहे कभी भी आये । इस बीच की विपरीत दशायें उसकी दिशा नहीं बदल सकती । ग़मों के बादल छाये, तूफान आये, चाहे युग बीतते चले जायें, किन्तु उसकी प्रतीक्षा का अंत प्रिय मिलन पर ही संभव है । शायर के शब्दों में-
बादल ग़मों के छाने लगे,
दिल को मेरे दर्द भाने लगे ।
मुंतजिर आंखे थकेगी नहीं
उन्हें आने में चाहे ज़माने लगें ।

वर्तमान स्वार्थी संसार को बेनकाब करने का औचित्य शायर बली प्रकार समझता है । अपनी तरक्की के जुनून में गरीबों के घर ढ़हाना आज आम बात है । लेकिन जुल्म ढ़हाने वालों से जुल्म सहने वाले भी कम जिम्मेदार नहीं है । ऐसे ही कमजोर लोकों में इन्तकाम की आग भड़काना औचित्य से परे परिलक्षित नहीं होता-
जुनून तरक्की का भी हो जाता है दुखःदायी,
तोड़े जाते है मकान ग़रीबों के कभी-कभी
जुल्म सहना है जुल्म ढाने से बड़ी खता,
ज़रुरी है ज़िन्दगी में भी इन्तकाम कभी-कभी ।

शांति स्थापना के लिये निरस्त्रीकरण की आवाज इस देश के लोग विश्व में उठाते रहे हैं । प्रेम वह उपकरण है जो सभी अस्त्र-शस्त्रों को निष्प्रभावी बना सकता है । यही सोच भाई जयन्त थोरात के शेर में प्रस्तुत है-
प्यार की एक दुनिया ऐसी बनायें,
असलहें जहां सभी नाकाम हो जायें ।

जो आदमी दूसरों के दोषों की ओर इशारा करता है, वह अपने गिरेवान में झांककर कभी नहीं देखता । अपनी कालिमा किसी को नज़र नहीं आती । मानवीय स्वभाव की ये कमजोरी उसके सुधार में एक बड़ी रुकावट है । इसी ओर इशारा करते हुए जयन्त थोरात कहते हैं –
आदमी बड़ा कमजोर होता है,
हर दिल में छिपा चोर होता है।
अपनी बारी पर सब चुप,
औरों के लिये जुवां पर शोर होता है ।

पुत्रियों की अपेक्षा लोग पुत्रों पर ज्यादा ध्यान देते हैं, पुत्रियों को पराया धन मानकर उनकी घोर अपेक्षा होती है । जबकि वे प्यार की सजीव प्रतिमाएं होती है । चांद से बी अधिक मूरानी बेटियां समय के हाथों छली जाती है । शायर के शब्दों में-
हर दुख जहां का बना इन्हीं की खातिर,
सिर्फ गमों की रानी होती है बेटियां ।
सब कुछ पास होकर भी इनका कुछ भी नहीं,
किस्मत की भी वीरानी होती है बेटियां ।
आंसुओं का संसार विचित्र होता है । दुख की व्यंजना के साथ सुखातिरेक के द्योतक भी होते हैं आंसू । आंसू क्या है, किन अनुभूतियों से गुथे हैं । शायर ने इसे अपनी एक ग़ज़ल के केनवास में उतारा है । कुछ अशआर देखिये-
सिर्फ पानी नहीं इशारे हैं आंसू,
गरीबों के दिल के सहारे हैं आंसू ।
खुशी और गम दोनों से है रिश्ता,
कहीं मीठे तो कहीं खारे हैं आंसू ।

खुशी एवं ग़म का जन-जीवन से सरोकार है, किंतु इन्हें अनुभव करने का पैमाना हैसियत पर निर्भर होता है । एक सम्पन्न अथवा प्रख्यात व्यक्ति का दुःख-सुख चर्चित होता है किन्तु वहीं यहि कोई साधारण अप्रख्यात व्यक्ति कष्ट भोगता है अथवा उसके यहां गमों का पहाड़ टूटता है तो पड़ोसी भी नहीं जान पाता । इस सच्चाई पर शायर की पैनी दृष्टि खूब गई है । उनका इसी कथ्य के साथ यह शेर देखें –
यूं तो गम और खुशी सब के लिये हैं,
शख्स के साथ अहसास बदल जाते हैं ।

सौन्दर्य बोध की झलक पर कौन आकृष्ट नहीं होता । शायर ने इस शेर में दीदार को अद्भुत सौन्दर्य बोध से भरने की कोशिश की है-
वो आये तो मगर मुख पर सुर्ख नकाब था,
मानो कमल के बीच खइला कोई गुलाब था ।
अथवा
आईना तोड़नो से सुकून न मिलेगा तुम्हें,
हर टुकड़े में ही मेरा अक्स नज़र आयेगा ।

इस तरह भाई जयन्त थोरात के इस ग़ज़ल संग्रह में अस्सी ग़ज़लें मोतियों की तरह जगमगाती है । इस माध्यम से उन्होंने मानव अनुभूतियों को अपनी इस अमूल्य मंजूषा में संजो दिया है । ग़ज़लों के कथ्यों की विविधता मनोहारी है । ग़ज़लों के शिल्प पर भी उनका ध्यान रहा है । प्रायः ग़ज़लों का ढांचा साफ सुथरा है । भाषा की दृष्टि से भी ग़ज़लों का सारल्य उन्हें आम आदमी की समझ से जोड़ देता है । उनकी शब्दावली न तो संस्कृत गर्भित है और न ही फारसी-ऊर्दू से बोझिल है । प्रवाहमयता के साथ वह अपनी ग़ज़ल प्रस्तुति में सफल है, फिर भी मेरी उनसे अपेक्षा है कि भविष्य में वे अपनी ग़ज़लों को सार्वजनिक सरोकार से अधिक जोड़ें । आज की व्यवस्था, आर्थिक विषमता, शोषण की बेरहमी को चित्रित कर प्रगतिशील इन्कलाबी ग़ज़लों पर ध्यान केन्द्रित कर समाज की विद्रूपताओं को उजागर करें । हिन्दी ग़ज़ल परम्परा के समर्थ ग़ज़लकार माननीय दुष्यंत ने क्या खूब कहा है-
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कमल के फूल अब कुम्हाने लगे है ।

अंत में भाई जयन्त को मेरी बधाई । इसी तरह वे हिन्दी ग़ज़ल साहित्य में इजाफा करते रहें । आशा है सह्रदय पाठक और हिन्दी साहित्य के चिन्तक इस संग्रह का तहे दिल से स्वागत करेंगे ।
शुभकामनाओं और सद्भावनाओं के साथ


लक्ष्मी नारायण शर्मा साधक
टीचर कालोनी,तिल्दा- नेवरा, जिला-रायपुर(छ।ग.)


दिनांक-8 जुलाई रथयात्रा-2005न्यू
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